भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये नहीं है सही वक़्त / राजकुमार कुंभज
Kavita Kosh से
एक खिला
बुझ गया दूसरा उसी वक़्त
सही वक़्त वही, जिसमें खिलें सब
बुझे नहीं कोई भी
गर्भस्थ शिशु परमात्मा है
और एक ग़रीब आदमी उससे भी ज़्याद
मैंने देखा नहीं है कभी परमात्मा
लेकिन देखा है ग़रीब
ग़रीबी भी देखी है बहुत क़रीब से
ग़रीबी में ही पला-बढ़ा, बड़ा हुआ हूँ
शायद इसलिए
इस-उस आरोह-अवरोह का
धुंध भरा गुनाह हुआ हूँ
मैं कैसे लिख सकता हूँ प्रस्तावना प्रेम-गीत की
मेरे पास तो, न रोटी है, न नमक
मेरे पास रोटी-नमक की चिंता है बड़ी
जो सबके लिए
एक खिला
दूसरा बुझ गया उसी वक़्त
इसे मत कहॊ सही वक़्त
ये नहीं है सही वक़्त