ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता / ग़ालिब
ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल<ref>मिलन</ref>-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
तेरी नाज़ुकी<ref>कोमलता</ref> से जाना कि बंधा था अ़हद<ref>प्रतिज्ञा</ref> बोदा<ref>खोखला</ref>
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार<ref>दृढ़,अटल</ref> होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश<ref>आधा खिंचा हुआ तीर</ref> को
ये ख़लिश<ref>पीड़ा,चुभन</ref> कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह<ref>उपदेशक</ref>
कोई चारासाज़<ref>सहायक</ref> होता, कोई ग़मगुसार<ref>सहानुभूतिकर्ता</ref> होता
रग-ए-संग<ref>पत्थर की नस</ref> से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार<ref>अंगारा</ref> होता
ग़म अगर्चे जां-गुसिल<ref>प्राणघातक</ref> है, पर<ref>आखिर</ref> कहां बचे कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़<ref>डूब जाना</ref>-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना<ref>बेमिसाल</ref> है वो यकता<ref>अद्वितीय</ref>
जो दुई<ref>दोगलापन</ref> की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़<ref>सूफीवाद की समस्याएं</ref>, ये तेरा बयान "ग़ालिब"!
तुझे हम वली<ref>पीर, औलिया</ref> समझते, जो न बादाख़्वार<ref>शराबी</ref> होता