ये पहाड़ / सुरेश सेन निशांत
ये पहाड़
ये कितनी बड़ी बिड़म्बना है
इस कठिन समय में
पहाड़ का एक आसान-सा चित्र
नहीं बन पा रहा है
एक छोटी-सी बच्ची से ।
उसे नहीं आ रहा है ख्याल
पहाड़ों पे वृक्ष बनाने का
वह चिड़ियों को
नहीं दे पा रही है
अपने उस चित्र में जगह
उगता सूरज
घुमड़ते बादल कुछ भी नहीं ।
पहाडों की नंगी देह पर
उकेरे हैं उसने
बिजली के बड़े-बड़े टावर
और चुपचाप चली गई
उस चित्र को वहाँ छोड़ ।
मैं भौंचक-सा खड़ा
डूबा उस चित्र में
सोचता हुआ कि
उसने पेड़ों को क्यों नहीं बुलाया
क्यों नहीं दिया न्यौता
चहचहाते पंछियों को
वह घुमड़ते बादलों से
क्यों नहीं बतिया पाई
अपने उस चित्र में ।
मैं अपराधी-सा शर्मिंदा
खड़ा रहा उस चित्र के सामने
माँगता हुआ मन ही मन माफ़ी
उस नन्ही मासूम से
कि हमने नहीं
उसने सुनी है
इस पहाड़ की कराहटें ।