प्रियजनों का बुढ़ापा मैं अब और नहीं देख पाती
मैं आँखें खोल-खोल कर नहीं देख पाती
ये प्रिय चेहरे बादलों की तरह गल जाते हैं
आँख के पोखर को घेरती छा जाती है जलकुंभी
प्रिय भौंहों की रेखाएँ
डैने समेटे मर गए पक्षियों की मानिन्द
मुँह के बल गिर जाती हैं
इतने प्रिय होंठ
तूफ़ान में झर गए कच्चे फलों की तरह
धूल में सूख जाते हैं,
अब सब कुछ कैसे हवा में उड़ते रहते हैं
काग़ज़ के बारीक़ टुकड़ों की तरह कैसे बिला जाते हैं!
किस तरह अपने फैलावे को समेट कर हृदय
प्रस्तुति में उतर आता है पथ पर
इसी पल हाथ उठाकर कोई किराये की गाड़ी रुकेगी
हाथ उठा कर विदा कह कर चली जाएगी।
देखती हूँ कि किस तरह अपने आप को समेट लेता है हृदय।
किस तरह मन सारे चमचमाते बर्तनों को
ताक से लेकर भयंकर झंकार के साथ
पत्थर पर पछींट कर चूर-चूर कर देता है
किस तरह ऐसी धूप में बिला जाते हैं शब्द
सारे निशान गल जाते हैं
ये प्रिय चेहरे बादलों की तरह
रूप बदल कर तैरते चले जाते हैं
मैं आँखें खुली रख कर भी
जली हुई घास वाला पास का आंगन
देख ही नहीं पाती।
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी