ये बरखा रुत ये बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं / अनु जसरोटिया
ये बरखा रुत ये बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
तिरे बिन चाँदनी रातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।
बरस पड़ते हैं आँसू बे-सबब, बे-वक्त भी अक्सर
ये बे-मौसम की बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।
किसी दिन सामने आओ हमारे रूबरू बैठो
ये टेलीफ़ोन पर बातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।
कभी तो अश्क थम जायें, कभी तो ख़ुश्क हो मौसम
ये बरसातों पे बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।
तसल्ली से कभी दो पल हमारे साथ बैठो तुम
ये रस्ते की मुलाक़ातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।
ख़ुशी का भी कभी पैग़ाम भेजो तो तुम्हें जानें
ये रंजो-ग़म की सौग़ातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।
हमीं से बे-वफ़ाई, और हमीं को बे-वफ़ा कहना
ये इल्ज़ामों की बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।
किसी दिन जीत ही लेंगे 'अनु' बाज़ी महब्बत की
कि आये दिन की ये मातें हमें अच्छी नहीं लगतीं।