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ये भी नहीं दस्त-ए-दुआ तक नहीं गया / फ़ैसल अजमी

ये भी नहीं दस्त-ए-दुआ तक नहीं गया
मेरा सवाल ख़ल्क-ए-ख़ुदा तक नहीं गया

फिर यूँ हुआ के हाथ से कश्कोल गिर पड़ा
ख़ैरात ले के मुझ से चला तक नहीं गया

मस्लूब हो रहा था मगर हँस रहा था मैं
आँखों में अश्क ले के ख़ुदा तक नहीं गया

जो बर्फ गिर रही थी मेरे सर के आस-पास
क्या लिख रही थी मुझ से पढ़ा तक नहीं गया

‘फ़ैसल’ मुकालमा था हवाओं का फूल से
वो शोर था के मुझ से सुना तक नहीं गया