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ये मक़ामे इश्क है कौन सा, कि मिज़ाज सारे बदल गये / ‘अना’ क़ासमी

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ये मक़ामे इश्क है कौन सा, कि मिज़ाज सारे बदल गये
मैं इसे कहूँ भी तो क्या कहूँ, मिरे हाथ फूल से जल गये

तिरी बेरूख़ी की जनाब से, कई शेर यूँ भी अ़ता हुए
के ज़बाँ पे आने से पेशतर<ref>पहले</ref>मिरी आँख ही में मचल गये

तिरा मैकदा भी अ़जीब है कि अलग यहाँ के उसूल हैं
कभी बे पिये ही बहक गए कई बार पी के सम्हल गये

सुनो जिन्दगी की ये शाम है ,यहाँ सिर्फ अपनों का काम है
जो दिये थे वक्त पे जल उठे, थे जो आफ़ताब वो ढल गये

कई लोग ऐसे मिले मुझे, जिन्हें मैं कभी न समझ सका
बड़ी पारसाई<ref>पवित्रता</ref>की बात की, बड़ी सादगी से पिघल गये

ज़रा ऐसा करदे तू ऐ ख़ुदा, कि ज़बाँ वो मेरी समझ सकें
वो जो शेर उनके लिए कहे वही उनके सर से निकल गये

शब्दार्थ
<references/>