ये महल हँसता है ...... / जितेन्द्र सोनी
किसी किले में घूमते हुए
हर बार सोचता हूँ
ये दीवारें छिपाए बैठी हैं कई राज़
इन गलियारों में कभी गूंजती होगी
बादशाह के जूतों की चरमराहट
वह कमरा जानता होगा
रानी के हुस्न और नखरों को
पहले कभी इस बाग़ में लगते होंगे ठहाके
कभी उस कोने में रची गयी होंगी साजिशें
कंगूरे के उन झरोखों से बाहर देखती होंगी
सावचेत सैनिकों की आँखें
खुले हिस्से में बजते होंगे खुशियों के नगाड़े
तो कभी बहा होगा खून
अभिषेक , मंत्रणा, प्रशासन
षड्यंत्र , सत्ता परिवर्तन , नया राजा
और भी क्या-क्या
जितना जानते हैं हम इनके बारे में
उससे कई गुना ज्यादा रहस्य
रह गया है दबा
इसीलिए छूना चाहता हूँ
हर ईंट को
काश! कभी कोई बाँट ले उन रहस्यों को
जिनको सदियों से सीने में दबाये
ये महल हँसता है
घूमने वाले लोगों के
अधूरे ज्ञान पर !!