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ये माना हर कोई इक सा नहीं है / रविकांत अनमोल
Kavita Kosh से
ये माना हर कोई इक सा नहीं है
मगर ये दौर कुछ अच्छा नहीं है
ज़माने में हसीं लाखों हैं यूँ तो
मगर कोई हसीं तुम-सा नहीं है
वो दे देता है सब कुछ आदमी को
मगर जो माँगिए देता नहीं है
हम उनके नाम पर झगड़ें तो झगड़ें
रहीम-ओ-राम में झगड़ा नहीं है
न कोई आँख तेरी आँख जैसी
कोई भी दिल मिरे दिल-सा नहीं है
कहीं ए काश आ जाएं वही दिन
मगर हाँ इस तरह होता नहीं है
चला जाऊँगा तेरी ज़िन्दग़ी से
मगर ये फ़ैसला मेरा नहीं है