भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये रह-ए-इश्क़ है इस राह पे गर जाएगा तू / अबरार अहमद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये रह-ए-इश्क़ है इस राह पे गर जाएगा तू
एक दीवार खड़ी होगी जिधर जाएगा तू

शोर-ए-दुनिया को तो सुन रंग-ए-रह-ए-यार तो देख
हम जहाँ ख़ाक उड़ाते हैं उधर जाएगा तू

दर-ब-दर है तो कहीं जी नहीं लगता होगा
वो भी दिन आएगा थक-हार के घर जाएगा तू

आज़िम-ए-हिज्र-ए-मुसलसल हुआ इस मिट्टी से
लौट आएगा यहीं और किधर जाएगा तू

जान जाएगा कि मँज़िल नहीं मौजूद कहीं
ख़ुश-गुमाँ है अभी सरगर्म-ए-सफ़र जाएगा तू

आरज़ू रख उसे पाने की कोई रोज़ अभी
फिर यहीं बाम-ए-तमन्ना से उतर जाएगा तू

ये जो तूफ़ान तिरे गिर्द है दीवानगी का
इक ज़रा तेज़ हुआ और बिखर जाएगा तू

कारवाँ रद हुआ और चुप हुई आवाज़-ए-जरस
क्या अब उस सम्त को ता-हद्द-ए-नज़र जाएगा तू

अब कहाँ ख़्वाब-ए-मोहब्बत कि वो शब दूर नहीं
जब कहीं ख़ाक-भरी नींद से भर जाएगा तू