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ये रात गुज़रेगी हम से कैसे / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
Kavita Kosh से
ये रात गुज़रेगी हम से कैसे, ये चाँद-तारे अभी नये हैं!
किसे कहें दुश्मनों का दुश्मन, सभी हमारे अभी नये हैं!
हमें न दरकार है बुतों से, हमें सरोकार क्या सुबू से,
वो मंदिरों-मैकदों में जायें, जो गम के मारे अभी नये हैं!
जो साथ देने प’ ही तुले हैं, जो दर्द लेने प’ ही तुले हैं,
उन्हें कहें क्या सिवाय इसके, कि वो सहारे अभी नये हैं!
य’ काफ़िले हो गये जो बागी, तो क्या हुआ ऐसा रहनुमाओ!
उठो नये काफ़िले बनाओ, हज़ारों नारे अभी नये हैं!
जो जाम-वाली नज़र से देखा, सभी किनारे लगे पुराने,
जो देखा तूफ़ा की आँख से तो, सभी किनारे अभी नये हैं!
चलो न ‘सिन्दूर’ सब के आगे, चलो न ‘सिन्दूर’ सब के पीछे,
उमर तुम्हारी अभी नयी है, क़दम तुम्हारे अभी नये हैं!