भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये रात तुम्हारी है चमकते रहो तारो / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
ये रात तुम्हारी है चमकते रहो तारो
वो आएँ न आएँ मगर उम्मीद न हारो
शायद किसी मंज़िल से कोई क़ाफ़िला आए
आशुफ़्ता-सरो सुब्ह तलक यूँही पुकारो
दिन भर तो चले अब ज़रा दम ले के चलेंगे
ऐ हम-सफ़रो आज यहीं रात गुज़ारो
ये आलम-ए-वहशत है तो कुछ हो ही रहेगा
मंज़िल न सही सर किसी दीवार से मारो
ओझल हुए जाते हैं निगाहों से दो आलम
तुम आज कहाँ हो ग़म-ए-फ़ुर्क़त के सहारो
खोया है उसे जिस का बदल कोई नहीं है
ये बात मगर कौन सुने लाख पुकारो