ये रात / मधुप मोहता
ये रात कितने खतरनाक इरादों के साथ आई है
बेसबब फिरती है साथ लिए हिज्र का चाँद
एक तनहा सी उदासी की उँगलियाँ थामे
लिखती रहती है कभी ख्वाब कभी दर्द कहीं.
ये रात लाई है सतरंगी सिलसिले तो कई
मखमली लम्स, मुसर्रत से झुकी आँखें भी
हर वो सामाँ, जो तुझ को भुलाने के लिए काफी है
पर ये सियाही तेरी आँख का काजल तो नहीं.
ये रात उधेड़ेगी हर इक ज़ख्म, कुरेदेगी मुझे
और रग रग में पिरो देगी ये दरमान्दा उम्मीद
कि खिल उठेंगे तेरे आरिज़ के अफ़सुर्दा गुलाब
पर ये नाशाद तस्सवुर तेरे काबिल तो नहीं.
ये रात आई है कुछ दिलचस्प खिलोने लेकर
और तेरी अक़ीदत का वादा-ए-फ़रदा लेकर
तू नहीं है मगर खुश है, इसका दिलासा लेकर
और बात है, ये मेरी इबादत का हासिल तो नहीं.
ये रात आई है तेरे अहसास का पैकर बन कर
तेरी खनक , तेरी महक का, पैरहन बन कर
तेरी खामोश हसरतों का, हसीं मंज़र बनकर
मगर ये लम्हा मेरी आवाज़ की मजिल तो नहीं
ये रात आई है तेरे वस्ल की राहत के बगैर
साथ लायी है तेरे न आने के बहाने कितने
मेरे लफ़्ज़ों में निहां है तेरी आवाज़ का सोज़
मैं खुश हूँ कि तू मेरे रंज में शामिल तो नहीं.
हाँ ये हो सकता है, ये रात मुझे मजबूर करे
सनसनीखेज इशारों से मुझे बहला ले
हवा का रुख मुझे ले जाये दूर बहुत दूर कहीं
उफक पे भोर का तारा मेरा साहिल तो नहीं.
ये रात आई है तेरे आने का वायदा लेकर
तेरी जुल्फों कि घनी छाँव का साया लेकर
मैं जानता हूँ गैरमुमकिन है कि तू मुझे भूले
कि तू संगदिल है मेरे दोस्त, पर बेदिल तो नहीं