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ये रौनकें ये लोग ये घर छोड़ जाऊंगा / मोहसिन नक़वी

ये रौनकें ये लोग ये घर छोड़ जाऊंगा
इक दिन में रौशनी का नगर छोड़ जाऊंगा

मरने से पेश्तर मेरी आवाज़ मत चुरा
मैं अपनी जायदाद इधर छोड़ जाऊंगा

कातिल मेरा निशान मिटाने पे है बा-जिद….
मैं भी सीना’न की नोक पे सर छोड़ जाऊँगा

तू ने मुझे चिराग समझ कर बुझा दिया
लेकिन तेरी लिये में सहर छोड़ जाऊँगा

आ’इन्दा नसल मुझ को पढ़ेगी ग़ज़ल ग़ज़ल
मैं हर्फ़ हर्फ़ अपना हुनर छोड़ जाऊँगा..

तुम अपने आबलों को बचाते हो किस लिये ?
मैं तो सफ़र में रखत-ए-सफ़र छोड़ जाऊँगा

मैं अपने डूबने की अलामत के तौर पर!
दरिया में एक आध भंवर छोड़ जाऊँगा

लश्कर करेंगे मेरी दलेरी पे तबसरे
मर कर भी ज़िन्दगी की खबर छोड़ जाऊँगा

"मोहसिन" मैं उस के ज़ख्म खरीदूंगा एक दिन
और उस के पास लाल-ओ-गौहर छोड़ जाऊँगा