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ये लजाते पलक / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
ये लजाते पलक
थरथराते अलक
छोड़ इनको जिये आदमी कब तलक,
एक तनहा, अधूरी, थकी जिन्दगी!
कंपकंपाते अधर
पांखुरी ज्यों गुलाबी थिरकती हुई
देह की डाल पर
ओस पीती हुई!
नम हवा के झकोरों सरीखी सरस
सांस उठती हुई
ज्यों लहर सरसराती, उमगती हुई
ऊंघते ताल पर
सिर्फ जीती हुई!
सुगबुगाते सपन
एक मीठी छुअन
खुशबुओं की लगातार ठंडी चुभन
उम्र-भर के लिए साथ इनका हुआ!
यह पुलक भीतरी
सागरिक फेन ले ज्यों हिलोरें कहीं
गुनगुनाता हुआ
बांसुरी की तरह!
प्यार के गीत के छंद उठते हुए
बंध खुलते हुए
यह नशीले नयन बहकता चषक
छलछलाता हुआ
माधुरी की तरह!
ये निमंत्रण मधुर,
भंगिमाएं निठुर,
मुग्ध करते हुए गीत के मौन सुर
क्यों न इनको भला आज स्वीकार लें!
-11 जून, 1977