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ये लपट, ये धुआँ / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
ये जो उठ रहा है, क्या है,
चारो तरफ़, बड़ी दूर तक,
ये जो लपट है, ये जो धुआँ है।
मुद्दत से सुलग-सुलग के,
खौल-खौल के अब उठा है।
जो खौफ़नाक, झुलस रहा
तेरी ज़मीं, तेरा आसमाँ है,
ये चुभेगा ही, तू घुटेगा ही,
लहू सोख कर के खिला है।
अब मिट रहे, जल-भुन रहे
तेरे जुल्म का ये मर्सिया है।
इस आग का, इस लपट का
तू तमाशबीन नया-नया है,
हाँफ ले, काँप ले अब तू भी,
ये नया-नया सिलसिला है।