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ये शहर आफ़तों से तो ख़ाली कोई न था / ताबिश कमाल

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ये शहर आफ़तों से तो ख़ाली कोई न था
जब हम सख़ी हुए तो सवाली कोई न था

लिक्खा है दास्ताँ में कि गुलशन उजड़ते वक़्त
गुलचीं बे-शुमार थे माली कोई न था

उस दश्त में मिरा ही हयूला था हर तरफ़
मैं ने ही शम-ए-इश्क़ जला ली कोई न था

जलसे उजड़ गए थे किसी ख़ुद-फ़रेब के
खुद ही जा रहा था वो ताली कोई न था

‘ताबिश’ हर एक दिल में शरारे थे क़हर के
हो पास जिस के सोज़-ए-बिलाली कोई न था