भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये सच है मैं अंधकार में हूँ / अशोक रावत
Kavita Kosh से
ये सच है इक मुद्दत से मैं अंधकार में हूँ,
सूरज निकलेगा लेकिन इस ऐतबार में हूँ.
देख सकूँ मैं पूरा सूरज घर के आँगन से,
कब से ऐसी एक सुबह के इंतज़ार में हूँ.
वैसे तो उससे मेरा सम्बंध नहीं कोई,
लेकिन उसकी हर बेचैनी हर करार में हूँ.
आज नहीं तो कल बदलेगी मेरी भी दुनिया
कैसा डर, में आज अगर ग़र्दो- गुबार में हूँ.
मेरी हर पूजा को तू क्यों ठुकरा देता है,
तेरी हस्ती के आगे मैं किस शुमार में हूँ.