ये सदाओं की बात चलने दो / शलभ श्रीराम सिंह
ये सदाओं की बात चलने दो
अब असाओं की बात चलने दो
बावफ़ाई है सर निगूँ जिन से
बेवफ़ाओं की बात चलने दो
अब दुआओं से घुट रहा है दम
बददुआओं की बात चलने दो
अब्रे-जुल्मत निगल गया जिनको
उन शुआओं की बात चलने दो
जिनकी तामीर है जहाने-अमल
उन ख़ुदाओं की बात चलने दो
जिनकी अजमत रही शोला नशीं
उन अनाओं की बात चलने दो
ज़िक्रे-आतिश बहुत हुआ यारो
अब हवाओं की बात चलने दो
रोशनी को जहाँ पनाह मिले
उन फजाओं की बात चलने दो
मंज़िले जिनका इंतेख़ाब करें
ऐसे पाँवों की बात चलने दो
जिनके होने से हो गया हूँ ’शलभ’
उन खताओं की बात चलने दो
रचनाकाल : 03 फ़रवरी 1982,
शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।