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ये सब कितने नीरस जीवन के लक्षण हैं / अज्ञेय

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ये सब कितने नीरस जीवन के लक्षण हैं? मेरे लिए जीवन के प्रति ऐसा सामान्य उपेक्षा-भाव असम्भव है।
सहस्रों वर्ष की ऐतिहासिक परम्परा, लाखों वर्ष की जातीय वसीयत इस के विरुद्ध है। मेरी नस-नस में उस सनातन जीवन की तीव्रता नाच रही है, उसे ले कर मैं अपने को एक सामान्य आनन्द में क्यों कर भुला दूँ?
मेरी तनी हुई शिराएँ इस से कहीं अधिक मादक अनुभूति की इच्छुक हैं, मेरी चेतना को इस से कहीं अधिक अशान्तिमय उपद्रव की आवश्यकता है। बुद्धि कहती है कि जीवन से उतना ही माँगना चाहिए जितना देने का उस में सामथ्र्य हो। बुद्धि को कहने दो। मेरा विद्रोही मन इस क्षुद्र विचार को ठुकरा देता है-'नहीं, यह पर्याप्त नहीं है...इस से अधिक- कहीं अधिक...सब...!'
इस अविवेकी, तेजोमय, भावात्मक भूख की प्रेरणा के आगे मेरी शक्ति क्या है! मैं उस की प्रलयंकारी आँधी में तृणवत् उड़ जाता हूँ।

दिल्ली जेल, 2 जुलाई, 1932