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ये सिलसिला ग़मों का न जाने कहाँ से है / 'शकील' ग्वालिअरी
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ये सिलसिला ग़मों का न जाने कहाँ से है
अहल-ए-ज़मीं को शिकवा मगर आसमाँ से है
यादों की रग-गुज़ार से ख़्वाबों के शहर तक
इस सिलसिला ज़रूर है लेकिन कहाँ से है
मेरी किताब-ए-ज़ीस्त को ऐसे ने फेंकिए
रौशन किसी का नाम इसी दास्ताँ से है
मंज़िल न पाई मैं ने मगर ये तो खुल गया
रिश्ता मिरे सफ़र का किसी कारवाँ से है
मौसम की हेर-फेर ने साबित ये कर दिया
कुछ मेरे जिस्म का भी तअल्लुक़ मकाँ से है
कहने को लोग क्या नहीं कहते ‘शकील’ को
सुनने को इश्तियाक़ तुम्हारी ज़बाँ से है