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ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं / आलोक श्रीवास्तव-१

ये सोचना ग़लत है के' तुम पर नज़र नहीं,
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर, बेख़बर नहीं।

अब तो ख़ुद अपने ख़ून ने भी साफ़ कह दिया,
मैं आपका रहूंगा मगर उम्र भर नहीं।

आ ही गए हैं ख़्वाब तो फिर जाएंगे कहां,
आंखों से आगे इनकी कोई रहगुज़र नहीं।

कितना जिएं, कहां से जिएं और किस लिए,
ये इख़्तियार हम पे' है, तक़्दीर पर नहीं।

माज़ी की राख उलटें तो चिंगारिया मिलें,
बेशक किसी को चाहो मगर इस क़दर नहीं।