भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये स्याह रात नही है / नीरजा हेमेन्द्र
Kavita Kosh से
रात उतरती जा रही है
धीरे... धीरे... धीरे...
छत पर... आँगन में...
काली सर्पीली सड़कों को
अपने आगोश में लेती
मन्द-मन्द हिलोरे ले रही
रातरानी के सुगन्धित वृक्ष को
आच्छादित कर देती है
स्याह रंगों से
ये रात मात्र स्याह रात नही है
इसमें घुली है चाँदनी भी
चाँद से उतरती चाँदनी
घने अन्धकार को चीरती देती है दस्तक
खिड़की पर निःशब्द शनै... शनै... शनै...
अन्धकार परिवर्तित हो रहा है
धीरे... धीरे... धीरे... चाँदनी में।