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योग पर अन्योक्ति / नाथूराम शर्मा 'शंकर'
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आज मिला बिछुड़ा बर मेरा,
पाया अचल सुहाग री !
भभका बेग वियोगानल का, स्रोत जलाया धीरज-जल का,
डूबी सुरत-प्रेम-सागर में, बुझी न उर की आग री !
इत-उत थाँग लगाती डोली, ठगियों की ठनगई ठठोली,
हुआ न सिद्ध मनोरथ तो भी, और बढ़ा अनुराग री !
ठौर-ठौर भटकी-भटकाई, सुधि न प्राण-वल्लभ की पाई,
सहस ने पर हार न मानी, लगी लगन की लाग री !
एक दया-निधि ने कर दाया, तुरत ठिकाना ठीक बताया,
पहुँची पास पिया ‘शंकर’ के, इस विधि जागे भाग री !