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योजनाओं का शहर-6 / संजय कुंदन

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योजनाओं में यह शहर
धरती पर नहीं रह गया था
इसका अपना एक अलग अक्ष था
यह स्वर्ग की परिक्रमा करता था
योजनाओं में बस एक मौसम था
और सूर्यास्त का कोई ज़िक्र नहीं था

शाम के झुटपुटे में रोज़ लौटती थी
याचकों की एक भीड़
न जाने अपने भीतर कितनी खरोंचे लिए
योजनाकारों को कभी नहीं दिखते थे वे लोग
जो किसी तरह बचते-बचाते
पता नहीं किस दिशा में जा रहे होते थे

एक दिन इसी तरह
कुछ सूअर सड़क पार कर रहे थे
योजनाओं के नशे में डूबे लोगों ने
उन्हें देखा तो डर गए
उन्हें लगा यह कोई बुरा सपना है।