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योजना बनाओ तो... / गोपालप्रसाद व्यास

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रहिबे कूं घर को मकान होई अट्टादार
हाथ सिलबट्टा पै उछट्टा दै हिलत जायँ।
द्वार बंधी गय्‌या होइ, घर में लुगय्‌या होइ,
बंक में रुपय्‌या होइ, हौंसला खिलत जायँ।
'व्यास' कवि कहैं-चार भय्‌यन में मान होइ।
देह हू में जान होइ, दंड हू पिलत जायँ।
रोजनामचा में रोज-रोज ओज आतौ रहै,
ऐसी करौ योजना कि भोजना मिलत जायँ।
भोजन में भात होइ, घी सौं मुलाकात होइ,
दही-बूरौ साथ होइ, दार अरहर की।
हरौ कछू साग होइ, चटनी की लाग होइ,
फूले-फूले फुलका परोसैं जाय घर की।

'व्यास' कवि कहैं रबड़ी जो मिल जाय कहूं,
फेरि हमें चाहना न बिधि-हरि-हर की।
योजना बनाऔ तो बनाऔ जामैं खीर घुटै,
पूरी कौन खाय ? बात मालपुआ तर की।
छोरा-छोरी थोरे होयँ, कारे नहीं, गोरे होयँ,
ब्याह के निहोरे होयँ, और हम नट जायँ।
मामले निपट जायँ आपस-के-आपस में,
बैद औ' बकीलन के छल-छंद छंट जायँ।
'व्यास' कवि कहैं बोटबारे सारे घेरे रहैं,
और हम अपने बिचारन पै डट जायँ।
फूट फट जाय, झूठ छट जाय भारत सौं,
खाइयां अनेकता की एकता सौं पट जायँ।