भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रँग बदले हैं / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रँग बदले हैं
नील गगन के

बजने लगी घंटियाँ भीतर
गन्ध-वलय
सियराता चन्दन
मन्दिर सजा
देवता हुलसित
और अधर पर
गीत विनर्तन
रची स्वस्तिका वन्दनवारें
सुमन बिछ गये हैं
उपवन के।

आया हे यह कौन अचानक
मेरे अन्तःकक्ष खोलकर
अभी-अभी तो
काग गया है
मुडगेली से यही बोल कर
हुई बाबरी प्रीति अजानी
तार-तार
झंकृत हैं मन के।

अन्तरिक्ष पर
लिखी इबारत
पढ़ता हूं मैं आँख मँूदकर
उतर रहा है
कन्ठ सीप के
कुछ अमृत सा बूँद-बूँद कर
आँगन में
नन्दित है पगध्वनि
प्राणों में
स्वर जीवन-धन के।
31.8.2017