रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध / विपिन चौधरी
पीले रंग को खुशी की प्रतिध्वनी के रूप में सुना था
पर कदम- कदम पर जीवन का अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पडने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया
तब लगा की हर चीज़ को एक टैग लगा कर कोने में रख दिया जाता है
जो बिना किसी विशेषण के अधूरी मान ली जाती है
अपनी ही कालिमा से लिप्त अधूरा इंसान भी
बिना विशेषण के सामने की किसी अधूरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है
नीले रंग की कहानी ने भी इसी तरह
मुझे देर तक खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुड़ा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया
यह लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर
इतिहास की लालिमा की ओर लपका फिर वापिस लौटा
लहुलुहान हो कर
कुछ ही दूरी पर खड़ा केसरी रंग प्रत्यंचा पर चढ़ा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु- सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिटटी में गुंधा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में,
मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ- कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसे ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ढीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।