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रंगों के बीच / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
इतने रंगों के बीच बसे
फिर भी यह सर्द उदासी क्यों?
दीवारें पर्दे
द्वार रँगे,
भीतर रहते हैं
लोग सगे,
सूरज भी है आकाश चढ़ा
फिर भी यह धूप ज़रा-सी क्यों?
खिल रहे फूल हैं
क्यारी में
नाटक सुखान्त
अल्मारी में
खुलकर हँसने की जगह मगर
आती हर बार उबासी क्यों?
अब भी तो
ढलती हैं शामें,
दरवाज़े पर
पल्लू थामें
सुख की परछाईं हिलती है
शीशी में बन्द दवा-सी क्यों?
अब भी सीनों में
धड़कन है,
आँखें भी हो जाती
नम हैं,
बाँहों के लाखों घेरों पर
बातों की संग तराशी क्यों?
रिश्तों के होते
क्या माने
मन के भीतर जब
तहखाने
बह रही प्यार के आँगन में
यह नदी खून की प्यासी क्यों?