भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रंगों के बोल / सोम ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गूँजे वंशी -मादल
झमके झांझर - पायल
रंगो के बोल भी सुनो ज़रा
हाँ, मन के रंगों के बोल भी सुनो ज़रा

सरगम के ज्वारों का छोर कहाँ
भैरवी दिवानी का भोर कहाँ
प्यार झूम -गये गन्धर्वों - सा
देह घूम - नाचे ज्यों अप्सरा

कौन लगन, लाल गाल लाज लजे
सोनल झंकार बिना तार बजे
प्राणों की बंदिश में एक टेक
अंगों ने छेड़ दिया अंतरा

सीमायें बढ़कर उलझाती हैं
बाहें वरमाल हुई जाती हैं
दृष्टि रचे सिंदूरी सभागार
सृष्टि -- सिया हो चली स्वयंवरा
रंगों के बोल भी सुनो ज़रा