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रंग-ए-उफ्क / सुमन पोखरेल
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हर सुबह के उपर कुछ लम्हा खडा हो कर
हर साम के बाजु में कुछ लम्हा रूक कर
खुद को भूल के देख रहे हैं मेरी नजरेँ
रोशनी के साथ साथ समेट रहेँ है मेरी पलकेँ,
जमिन के आखरी किनारे पे टकराकर रंगा हुवा आसमान को ।
सोच रहा हूँ;
यह सुर्खी
एक दुसरे से जुदा हो के मुतजाद रास्ते को चले आशिकों के
टुटे हुए दिल का रंग है, या
हिज्र की अंधेरी मौषम के बाद जुडे हुए दिलों मे खिले हुए
बस्ल की सुर्ख रोशनी ?
दिन को खोलनेवाले फाटक और बन्द करनेवाले दरवाजे पे बिखरे हुए
इन्ही सुर्खीओँ को देखते देखते
आधी जिन्दगी रंग ही रंग से भिग चुकी, मगर
समझ न पाया
कि
ये जमिन और आसमान
साम को जुदा हो के सहर को मिलते हैं
या
सहर को बिछुड्कर शाम को मिला करते हैँ?