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रंग-ओ-ख़ुश्बू शबाब-ओ-रानाई है / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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रंग-ओ-ख़ुश्बू, शबाब-ओ-रानाई
हो गई आप से शनासाई!

हो तो किस किस की हो पज़ीराई
नाज़, अन्दाज़, हुस्न, ज़ेबाई!

सुब्ह मजबूर, शाम को महरूम
बेकसी लाई तो कहाँ लाई!

लोग जिसको बहार कहते हैं
वो किसी शोख़ की है अँगड़ाई!

हम भी मजबूर, आप भी मजबूर
आह! दुनिया की कार-फ़र्माई

दामन-ए-सब्र छूट छूट गया
चोट वो दिल ने इश्क़ में खाई

ख़स्तगान-ए-क़फ़स को क्या मतलब
कब गई और कब बहार आई

पास-ए-ग़म,पास-ए-दर्द,पास-ए-वफ़ा
गर न होते तो होती रुसवाई

खुद शनासी, ख़ुदा शनासी है
बात मेरी समझ में अब आई!

आज तक राज़-ए-ज़िन्दगी न खुला
हम तमाशा हैं या तमाशाई?

बात बेबात आँख भर आना
ये भी है सूरत-ए-शकेबाई

उन से उम्मीद-ए-दोस्ती "सरवर"?
आप क्या हो गये हैं सौदाई?