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रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम / आलम खुर्शीद

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रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम
अपनी आँखों में कोई महताब कहाँ रखते हैं हम

यह अपनी ज़रखेज़ी है जो खिल जाते हैं फूल नए
वरना अपनी मिटटी को शादाब कहाँ रखते हैं हम

हम जैसों कि नाकामी पर क्यों हैरत है दुनिया को
हर मौसम में जीने के आदाब कहाँ रखते हैं हम

महरूमी ने ख़्वाबों में भी हिज्र के काँटे बोए हैं
उस का पैकर मर्मर का किम्ख्वाब कहाँ रखते हैं हम

तेज़ हवा के साथ उड़े हैं जो अवराक़ सुनहरे थे
अब क़िस्से में दिलचस्पी का बाब कहाँ रखते हैं हम

सुब्ह सवेरे आँगन अपना गूँज उठे चहकारों से
तोता, मैना, बुलबुल या सुर्खाब कहाँ रखते हैं हम