भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रंग-रूप रहित सबही लखात हमें / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रंग-रूप रहित लखात सबही हैं हमै,
वैसो एक और ध्याइ धीर धरिहैं कहा ।
कहै रतनाकर जरी हैं बिरहानल मैं,
और अब जोति कौं जगाइ जरिहैं कहा ॥
राखौ धरि ऊधौ उतै अलख अरूप ब्रह्म,
तासौं काज कठिन हमारे सरिहैं कहा ।
एक ही अनंग साधि साधन सब पूरीं अब,
और अंग-रहित अराधि करिहैं कहा ॥45॥