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रंग ए एहसास छलकता है / रिंकी सिंह 'साहिबा'

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रंग ए एहसास छलकता है, निखर जाती है,
ज़िन्दगी इश्क़ के साये में सँवर जाती है।

रूह छूकर कोई गुजरे तो मुहब्बत कहना,
जिस्म को छू के हवा भी तो गुज़र जाती है।

जब जुनूँ खींचने लगता है फ़लक की चादर,
खल्क इक नक़्श ए कफ़ ए पा में उतर जाती है।

दश्त ओ सहरा में भटकती हूँ मैं तन्हा लेकिन,
मुझसे लिपटी हुई ये किसकी नज़र जाती है।

सबने देखा है बहुत जिस्म का मिट्टी होना,
रूह को देखे कोई रूह किधर जाती है।

एक ही आब ओ हवा होती है गुलशन में मगर,
कोई खिलती है कली कोई बिखर जाती है।

रंग भरने को उतरते हैं फ़रिश्ते सारे,
उनकी तस्वीर जो आँखों में उभर जाती है।

उनके छूने से मेरे ज़ख्म चमक उठते हैं,
बेकली दिल की मेरी जाने किधर जाती है।

कोई मंज़र इसे रास आया नहीं दुनिया में,
ढूंढ़ती है ये नज़र उनको जिधर जाती है।

वो जो इक चोट-सी लग जाती है दिल पर अपने,
वो भी दुनिया का हमें दे के हुनर जाती है।

मुश्किलें ही तो मेरा अज़्म ए सफ़र हैं 'रिंकी' ,
हो जो आसानी तो रफ़्तार ठहर जाती है।