रंग और काई में लिपटी कल्पना / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'
तुम साल दर साल बढ़ते जा रहे हो.
और मेरे पास हैरानियों के लिए ज़रा भी समय नहीं.
पहले तुम्हें उंगलियों पर गिनना आसान था.
एक
दो
सात
बारह..
अब तुम्हारे अंतर्मुखी कलाकार को
साल्सा नृत्य के कुछ स्टेप्स इतने पसंद आ गए हैं
कि मुझे बिना वस्त्रों की एक ख़ामोशी बन जाना पड़ता है.
ताकि मैं एक इंच कदम भी तुमसे अलग न हो सकूँ.
ताकि मैं नृत्य में अपना एक मुहावरा गढ़ सकूँ.
और तुम डूब सको हर बार के अभ्यास के साथ.
तिरोहित होते हुए.
सापेक्ष होने से बिल्कुल बचते हुए.
मेरी आत्मनिर्भर माँ ने एक साथ दो लड़कियों को जन्म दिया.
और उसे इस बात का पता भी नहीं चला कभी.
एक हमेशा दूर से मुस्कुराती रही.
अदृश्य में उसके कोमल अंग सांस भरते रहे.
उसने कई आश्रय तलाशे.
कई नामों में तल्ख़ हुई.
और आखिर में एक कल्पना बन गई.
रंग और काई में लिपटी कल्पना !
एक संतुलित और अस्तित्ववादी परिकल्पना.
जिसके ऊपर अतीत और भविष्य के घर्षण के बादल
मधुमक्खियों समान हर समय मंडराते रहे.
इसी बीच मुझे मालूम हुआ
कि हर अपराध क्षतिपूर्ति के आनंद में डूबा है.
हर विचारधारा पानी का एक चमकदार बुलबुला है.
मुझे संज्ञाओं में प्रेम और एकेश्वरवाद से चिढ हो जाती है अक्सर.
और तुम्हारी धूप है जो मुझे घेरती जा रही है.
तुम्हें अपने गालों पर मेरे गुलाबी होंठों की आभा
किसी चट्टान जैसी मुकम्मल लगती थी.
होंठों पर चुम्बन मेरी करुणा का बीज है.
एक परिपक्व करुणा
बिना शोरगुल की
ममत्व भरी.
उम्र के साथ मेरे बाल अब घुंघराले होने लगे हैं.
जिन्हें धूल की आंधियों में हंसी के साथ तालमेल बिठाना अब आ गया है.
तुमसे लंबी बातों में अंतराल चाहते हुए
मैं मार्केज़ की छोटी सी मुस्कान देख लेती हूँ.
जैसे टूटे हुए दृश्य हमेशा मेरे आस-पास हों
हवा में तैरते.
देखो !
हमारे घर में लगी सेम की फली की बेल कितनी बढ़ गई है.
सब फलियां रात होने से पहले नर्म झटकों से तोड़ लेना.
अब मुझे नींद आई है
क्या मैं सो जाऊं ?