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रंग और काष्ठ नहीं / भारत भूषण तिवारी / मार्टिन एस्पादा
Kavita Kosh से
रंग और काष्ठ नहीं
मैने उसे नेरूदा के घर देखा था
एक सदी पहले तराशी गयी
जहाज़ के अगले हिस्से से
लहरों की चौकसी करने की खातिर,
गज़ब की कत्थई आँखों
और बलखाती जुल्फों के साथ,
खामोश जब चक्कर काटती
कवि की मेज के ऊपर
बार में उस रात
वह नमूदार हुई मेरी कुहनी से सटी
वही आँखें, वहीं जुल्फें
रंग और काष्ठ नहीं बल्कि हाड़-मांस
उन्हें पसन्द है मेरा थिर रहना
वह बनावटी हँसी के साथ बोली।
मुझे पसन्द नहीं थिर रहना
मैं चढ़ना चाहती हूँ
माँचू पीच्चू की सीढ़ियाँ
मैं कविता की बात करना चाहती हूँ रात भर
मैं और हाला चाहती हूँ।