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रंग तुम्हारे गहरे हैं अब क्या बोलें / पुरुषोत्तम प्रतीक

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रंग तुम्हारे गहरे हैं अब क्या बोलें
अपने पास अँधेरे हैं अब क्या बोलें

चीख़ रहा है कोई भीतर ही भीतर
आवाज़ों पर पहरे हैं अब क्या बोलें

फुर्सत या आदत होती तो गिनते भी
यूँ तो ग़म बहुतेरे हैं अब क्या बोलें

तेरी-मेरी चिन्ताओं से चमक उठे
कैसे-कैसे चेहरे हैं अब क्या बोलें

घर जिनमें रहती हैं साँसें भाड़े पर
चलते-फिरते डेरे हैं अब क्या बोलें