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रंग पुताई करने वाले / आत्मा रंजन

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रंगों से है उनका
और उनके जीवन का वास्ता
कुछ-कुछ हो सकता है
पर ठीक वैसा नहीं
रहा जैसा पिकासो का
गुरु देव रवीन्द्र या एमएफ हुसैन का
हालांकि रंग इन्हें भी खींचते हैं
लुभाते हैं वैसे ही
कमोवेश मिल सकती हैं
उनसे इनकी रूचियाँ
प्राथमिकताएँ तो लगभग नहीं ही

अपनी प्राथमिकताओं में बंधे
सुबह के जाड़े के खिलाफ मुस्तैद
गलबंद कसी कनपटियाँ ताने
जर्दा तंबाकू मलते फटकते
चल पड़े हैं वे काम पर

ये किशन रहता है दड़बेनुमा खोली में
करीम कच्चे मटकांधों में
ये रामधन तबेलेनुमा भाड़े की कोठरी में
पर बड़े-बड़े लोगों के पास
महफूज हैं इनके नाम पते
कि रंग पुताई के माहिर कारीगर हैं वे
बड़े-बड़े आलीशान घरों को
तितलियों-फूलों की मानिंद
रंगते सजाते हैं वे महंगे रंगों से
ये बात अलग
कि उनके घरों में
लगता रहा है चूना ही

सुबह से शाम तक
रंगों से खेलते रहते हैं वे
अपने पूरे कला कौशल के साथ
पर कोई नहीं मानता इन्हें कलाकार
वे जीते हैं पुश्त दर पुश्त / अनाम
हालांकि कम नहीं है इनकी भी रंगों की समझ
क्या कितना मिलाकर बनता कैसा रंग
किशन कहता है-साहब
आसान नहीं है मथना सहेजना ये सफेद
जरा नहीं मानता लाग लपेट
ब्रश तक चाहिए सुथरा और बर्तन भी
कहता करीम-ब्रश धोने पर
कैसा गंदला बच रहता बाल्टी में
ठीक-ठीक काला भी नहीं-बदरंग
जैसे तमाम रंगों की हो कोई साजिश
हाथों से तो छूटता ही नहीं कमबख्त
यही आता उसके हिस्से में अधिकतर
हाथों में नाखून कोनों में जमता हुआ
गहरा उतरता हुआ फटी बिवाईयों में
चीकट कपड़ों पर अधिकतर यही
या और भी कैसे-कैसे बेतरतीब रंगों के छींटे

कितना सधा है उनका हाथ
दो रंगों को मिलाती लतर
मजाल है ज़रा भी भटके सूत से
कैसे भी छिंट जाए उनका जिस्म, उनके कपड़े
सुथरी दीवार पर मगर
कहीं नहीं पड़ता कोई छींटा

कितने महंगे कितने बढ़िया
बनाए गए रंग ये ब्रश
पता नहीं निर्माताओं को
किसी किशन, करीम या रामधन के
हाथों में ही जीवित हो उठते ब्रश
और लकदक हो उठते रंग

करते हंसी ठठा, बतियाते
दूर देहात का कोई लोक गीत गुनगुनाते
रंग पुताई कर रहे हैं वे
कहाँ समझ सकता है कोई
खाया-अघाया कला समीक्षक
उनके रंगों का मर्म
कि छत की कठिन उल्टान में
शामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग
कि दुर्गम ऊंचाईयों के कोनो कगोरों में
पुते हुए हैं उनकी छिपकली या
बंदर मुद्राओं के जोखिम भरे रंग
देखना चाहो तो देख सकते हो
चटकीले रंगों में फूटती ये चमक
एशियन पेंट के किसी महंगे फार्मूले की नहीं
इनके माथे के पसीने पर पड़ती
दोपहर की धूप की है

दरअसल महंगी कला दीर्घाओं की
चारदिवारी तक महदूद नहीं
हमारी रोजमर्रा कि दृश्यावलियों को
खूबसूरत बनाया है इनके रंगों ने

इन हाथों के पास हैं
तमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर
खराब मौसम और खराब स्थितियों की
खामोश साज़िश है सीलन
मौन पकता कोई अवसाद
बदरंग छाईयों या चकत्तों में कहीं प्रकट होता
हवाओं में घुलता

दरअसल यह दीवार की नहीं
पृथ्वी की सीलन है
इन हुनरमंद हाथों से पुंछती
मरहम लगवाती हुई।