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रंग सारे / रोहित रूसिया
Kavita Kosh से
रंग सारे
हो रहे बदरंग
फीके पड़ रहे हैं चित्र
वेदनाओं की
पहुँच
संवेदनाओं तक
नहीं है
मन से
मन का रास्ता
संभावनाओं तक
नहीं हैं
नेह गीतों के
मधुर, पावन
सभी सुर
हो गए अपवित्र
आँख नम
होती कहाँ अब
सिर्फ अंगारे
भरे हैं
झूठ
सारे के ही सारे
आज सच से भी
खरे हैं
छल-कपट के
देखिये
असबाब अब तो
हो गए हैं मित्र