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रंग / आरती तिवारी
Kavita Kosh से
मुझे अच्छा लगा था उसका पक्का रंग
और उसमें से झाँकती उसकी
धवल हंसी
उसकी कत्थई आँखें
और उनकी सुनहली चमक
उसके माथे के बीचोंबीच
एक छोटे वृत्त में पसरा लाल रंग
खूब फब रहा था
उसके श्याम वर्ण पे
उसकी आसमानी धोती पे
बिखरी नीली छींट
मुझे जंगल में नाचता मोर
याद आया
उसके फूटते केशौर्य से
टपका पड़ रहा था
सिंदूरी रंग खिल खिल हंसते
मगर गुलाबी रंग से
अनजान जान पड़ती थी
आम के झाड़ पे
ऊंची टहनी पे बैठी वो
सब्ज़ पत्तों से बातें करती दिखी जब
मुझे याद आ गईं
माँ की गोरी कलाई में खनखनाती
हरे काँच की चूड़ियाँ
और आम के मौड़(मञ्जरी)
ऊँगलियों के पोरों से
उसे सहलाते देख
मुझे विश्वास हो गया
आ चुका है वसन्त