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रंग / मनीष मिश्र
Kavita Kosh से
जब
चुकने लगते हैं शब्द
पहचान खो देती है
भाषा
अप्रासंगिक
हो जाती है सभ्यताएँ
तब रंग -
अपनी गीली ज़मीन से उठकर
हमारा अभिवादन करते हैं ।