भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रंग / वंशी माहेश्वरी
Kavita Kosh से
चढ़ते-उतरते हैं रंग
रंग उतरते-चढ़ते हैं
कितने ही रंग कर जाते हैं रंगीन
जीवन मटमैला
अदृश्य सीढ़ी हैं रंग
आने-जाने वाले दृश्य के बाहर
दृश्य का सिंहावलोकन विचार
आकाश की टपकती छत से
कितने रंग बिखरे हैं
कितने ही बिखरने को हैं
जिन हाथों में ब्रश हैं
आधे-अधूरे चित्र चित्रित जिनमें
वे कैनवॉस छिन गए
रंगों से खेलते चले आ रहे हैं वर्षों से
फाग अब फ़ाल्गुनी उत्सव भर नहीं है
रंगों टोलियाँ
काँपते-छूजते
अचानक में
आवाजाही करती है
देश का रंग
उतर रहा है लगातार बेहद शान्त।