रंजो-अलम को जज़्ब दिलों में किये हुए
जीते हैं लोग जीने के अरमां लिये हुए
सुक़रात और मीरा के हमसर हैं आज भी
सच के इवज़ में ज़ह्र का प्याला पिये हुए
अम्न और दोस्ती का मुखौटा लगाये फिर
आये हैं वह फ़रेब के ख़ंजर लिये हुए
हर युग में बेबसी ये रही है अवाम की
जीना पड़ा है अपने लबों को सिये हुए
रास आयेगी कभी तो सियासत की धूप-छाँव
ज़िन्दा है हर बशर यही हसरत लिये हुए
इक लम्हा के लिए तो सुकूं बख़्श ऐ खुदा
मुद्दत हुई है जीने-सा जीवन जिये हुए
हमदर्दियाँ भी काम न मरहम का कर सकीं
'दरवेश' ऐसे ज़ख्म थे उनके दिये हुए