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रंज इस का नहीं कि हम टूटे / सूर्यभानु गुप्त

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रंज इस का नहीं कि हम टूटे
ये तो अच्छा हुआ भरम टूटे

एक हल्की सी ठेस लगते ही
जैसे कोई गिलास – हम टूटे

आई थी जिस हिसाब से आँधी
उस को सोचो तो पेड़ कम टूटे

कुर्सियों का नहीं कोई मज़हब
दैर ढह जाये या हरम टूटे

लोग चोटें तो पी गये लेकिन
दर्द करते हुये रक़म – टूटे

आईने, आईने रहे, गरचे
साफ़गोई में दम-ब-दम टूटे

शायरी, इश्क़, भूख, ख़ुद्दारी
उम्र भर हम तो हर क़दम टूटे

बाँध टूटा नदी का कुछ ऐसे
जिस तरह से कोई क़सम टूटे

एक अफ़वाह थी सभी रिश्ते
टूटना तय था और हम टूटे

ज़िन्दगी कंघियों में ढाल हमें
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेचो-ख़म टूटे

तुझ पे मरते हैं ज़िन्दगी अब भी
झूठ लिक्खें तो ये क़लम टूटे