रंज के सैलाब में मुझको बहाकर ले गया /वीरेन्द्र खरे अकेला

रंज के सैलाब में मुझको बहा कर ले गया
चैन मेरा दर्द वो अपना सुना कर ले गया

भूख से बेहाल बच्चे पर सितम तो देखिए
एक रोटी थी वही कुत्ता उठा कर ले गया

पूछिए मत कर्ण से इस वक्त उसके दिल का हाल
दान में कोई कवच-कुण्डल मंगा कर ले गया

योग्यताओं का भरम पाले कई बैठे रहे
नौकरी वो नोट की गड्डी थमा कर ले गया

अब वो अपराधी पुलिस की क़ैद में है ही कहाँ
इक मुआ मंत्री उसे कब का छुड़ा कर ले गया

आँकड़ा छत्तीस का था उसके मेरे दरमियाँ
ऐसे रिश्ते को भी यारो मैं निभाकर ले गया

ऐ ‘अकेला’’ जिनसे अपनी ज़िन्दगी थी ज़िन्दगी
वक्त का तूफ़ाँ वो उम्मीदें उड़ा कर ले गया

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