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रक़म करेंगे तिरा नाम इंतसाबों में / नासिर काज़मी

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रक़म करेंगे तिरा नाम इंतसाबों में
कि इतंखाबे-सुख़न है ये इतंखाबों में

मिरी भरी हुई आंखों को चश्मे-कम से न देख
कि आसमान मुकय्यद है इन हुबाबों में

हर आन दिल से उलझते हैं दो जहान के ग़म
घिरा है एक कबूतर कई उकाबों में

ज़रा सुनो तो सही कान धर के नाल-ए-दिल
ये दास्तां न मिलेगी तुम्हें किताबों में

नई बहार दिखाते हैं दागे-दिल हर रोज़
यही तो वस्फ है इस बाग के गुलाबों में

पवन चली तो गुलो-बर्ग दफ़ बजाने लगे
उदास ख़ुशबूएं लौ दे उठीं नकाबों में

हवा चली तो खुले बादबाने-तब-ए-रसा
सफीने चलने लगे याद के सराबों में

कुछ इस अदा से उड़ा जा रहा है अबलके-रंग
सबा के पांव ठहरते नहीं रकाबों में

बदलता वक़्त ये कहता है हर घड़ी 'नासिर'
कि यादगार है ये वक़्त इंकलाबों में।