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रक्त-मांस-मल-मूत्र-मेद-मज्जा / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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(राग भीमपलासी-ताल कहरवा)
रक्त-मांस-मल-मूत्र-मेद-मज्जा-कफ-अस्थि-वस्तु अपवित्र।
भरी इन्हींसे देह, ढकी चमड़ेसे ये चीजें सर्वत्र॥
भूले फिरते, इस अति घृणित देहको भ्रमसे सुन्दर जान।
धोते, मलते, इसे सजाते, आलिन्गन करते सुख मान॥
जन्म-मरण-वृद्धत्व-रोग-दुखसे पीडित, अनित्य यह देह।
बन जायेगी मरनेपर यह कृमि, विष्ठ, श्मशानकी खेह॥
भोग सभी हैं सदा अनित्य-अपूर्ण, बह रहा मृत्यु-प्रवाह।
इनमें सुखकी खोज भ्रान्ति भारी, उपजाती नित उर-दाह॥
कुछ भी नहीं यहाँ अविनाशी, कुछ भी नहीं पूर्ण-रस-एक।
किंचित् भी न कभी सुख इनमें, समझो, देखो, करो विवेक॥
आत्यन्तिक सुख, शान्ति शाश्वतीके हरि एकमात्र भंडार।
चाहो जो सुख-शान्ति, भजो हरि, तजो मोहमय यह संसार॥