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रक्त नीला / कविता वाचक्नवी
Kavita Kosh से
उंगलियों ने अभी-अभी ही तो
बुनी थी
घास की एक अंगूठी
उंगली के आस-पास
कि दिन
हवा की हथेली पर
धूप रख गया
भीड़ अपने रास्ते नापती
अंधेरे की पगडंडियाँ बनाती
चली जाती है ,
मिट्टी के ऊपर आई
पेड़ की जड़ों की नसें
बहुत बूढ़ी हो गई लगती हैं ,
पहाड़ तक
खाली हैं पठार
पंखों को पीठ के पीछे मिलाती
सर्राती चिड़िया
नदी किनारे लुढ़की गागर पर बैठ
गाती है बार-बार
एक कोई गीत
आकाश दोहराता है उसे
और पोर
समझ जाते हैं
कलम का तो
रक्त तक
नीला होता है ।