भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रखता हूँ शम्मे-आह सुख़न के फि़राक़ में / वली दक्कनी
Kavita Kosh से
रखता हूँ शम्मे-आह सुख़न के फि़राक़ में
हाजत नहीं चिराग की मेरे रवाक़ में
आब-ए-हयात-ए-वस्ल सूँ सीने के सर्द कर
जलता हूँ रात-देस पिया तुझ फि़राक़ में
सुनकर ख़बर सबा सूँ गरेबाँ कूँ चाक कर
निकले हैं गुल चमन सूँ तेरे इश्तियाक़ में
ऐ दिल अक़ीक-ए-लब के ये आए हैं मुश्तरी
मोती न बूझ ज़ुहरा जबीं के बलाक़ में
तेरे सुख़न के ऩग्मा-ए-रंगीं कूँ सुन 'वली'
डूबा अरक़ के बीच 'इराक़ी' इराक़ में